उत्तराखण्ड में देवकालीन शासन व्यवस्था | Vedic Administration in Uttarakhand in Hindi
कैलाश के राष्ट्राध्यक्ष शिव शंकर व विनायक थे। कैलाशपति शिव की पत्नी उमा हिमालय की पुत्री थी और देवपुरी के निवासी देव, गंधर्व थे। इनके राजा इन्द्र थे।
उत्तराखण्ड में देवकालीन शासन व्यवस्था (Vedic Administration in Uttarakhand)
कैलाश (Kailash)
- यहां के राष्ट्राध्यक्ष शिव शंकर व विनायक थे।
देवपुरी (Devpuri)
- देवपुरी के निवासी देव, गंधर्व थे। इनके राजा इन्द्र थे।
हिमक्षेत्र (Himchetra)
- देवकाल का चौथा क्षेत्र हिमक्षेत्र था। यहां के राजा हिमालय थे।
- कैलाशपति शिव की पत्नी उमा हिमालय की पुत्री थी।
अल्कापुरी (माणा) (Alakapuri)
- बद्रीनाथ व सतोपंथ के मध्य का भाग अल्कापुरी था।
- पुराणों के अनुसार इस क्षेत्र में सिद्ध, गंधर्व, यक्ष व किन्नर जातियां थी। इन सबका राजा कुबेर था जिसकी राजधानी अल्कापुरी थी।
- ऋग्वेद में अलकनंदा के लिए हिरण्यवर्तिनी शब्द का प्रयोग किया गया है।
- ऋग्वैदकि आर्यों की सिन्धु अल्कापुरी की अलकनंदा ही थी।
उत्तराखण्ड में नदियों के प्राचीन नाम(Ancient Names of Rivers in Uttarakhand)
- अलकनंदा प्राचीन नाम सिंधु व शत्रुद्रि है।
- धौली गंगा का प्राचीन नाम नितभा व श्वेत्थ्या है।
- नंदाकिनी का प्राचीन नाम रसा है।
- पिंडर का प्राचीन नाम कुमु है।
- मंदाकिनी का प्राचीन नाम कुभा है।
- गंगा को सरयू कहा गया है।
- नयार या नबालिका को परूषणि कहा गया है।
- सरस्वती नदी का प्राचीन नाम विपाशा था।
गढ़वाल क्षेत्र से संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य(Important Facts Related to Garhwal)
- गढ़वाल क्षेत्र को पहले बद्रिकाश्रम क्षेत्र, तपोभूमि, स्वर्गभूमि एवं केदारखण्ड आदि नामों से जाना जाता था।
- 1515 में पवार वंश के 37वें शासक अजयपाल द्वारा 52 गढ़ों को विजित करने कारण इसे गढ़वाल नाम से जाना जाने लगा।
- कुछ विद्वान मानते हैं कि गढवाल शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग मौलाराम ने किया।
- महाभारत के आदि पर्व के अनुसार नागराज कौरव की कन्या उलूपी से अर्जुन का विवाह गंगाद्वार में हुआ था।
- हरिराम धस्माना, भजन सिंह और शिवानन्द नौटियाल का मत है कि ऋग्वेद में जिस सप्तसिन्धु देश का उल्लेख है वह गढ़भूमि अर्थात गढ़वाल ही है।
- ऋग्वेद में वर्णित सरस्वती नदी का संबंध भी यहीं से है।
- सरस्वती नदी का पुराना नाम विपाशा था।
- विसोन नामक पर्वत (टिहरी गढ़वाल) पर वशिष्ठ कुंड एवं वशिष्टाश्रम स्थित है।
- ऐसा माना जाता है कि सितोनस्यूं पट्टी पौढ़ी में सीता जी पृथ्वी में समायी थीं इसी कारण प्रतिवर्ष मनसार में सीता जी की याद में मेला लगता है।
- देवप्रयाग में भगवान राम का मन्दिर है जो द्रविड़ शैली में निर्मित है। यहां पर भगवान राम ने अपने अंतिम दिनों में तपस्या की थी।
- लक्ष्मण जी ने जिस स्थान पर तपस्या की थी वह स्थान आज तपोवन (टिहरी) कहलाता है।
- केदारनाथ को महाभारत के वन पर्व में भृंगतुंग कहा गया है।
- रामायणकालीन बाणासुर का राज्य भी इसी गढ़वाल क्षेत्र में था उसकी राजधानी ज्योतिषपुर वर्तमान जोशीमठ में थी।
- महाभारत के वनपर्व के अनुसार उस समय इस क्षेत्र में पुलिंद (कुणिन्द) एवं किरात जातियों का आधिपत्य था।
- पुलिन्द राजा सुबाहु की राजधानी श्रीपुर वर्तमान श्रीनगर थी। जिसने पांडवों की ओर युद्व में भाग लिया था।
- सुबाहु के बाद राजा विराट का उल्लेख मिलता है इसकी राजधानी जौनसार के पास विराटगढ़ी में थी। इसी की पुत्री उत्तरा से अभिमन्यु का विवाह हुआ था।
- प्राचीन काल में बद्रीकाश्रम और कण्वाश्रम नामक दो विद्यापीठ थे। कण्वाश्रम मालिनी नदी के तट पर स्थित है। जिसको वर्तमान में चौकाघाट के नाम से जाना जाता है।
- कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् की रचना मालिनी नदी( पौड़ी गढ़वाल) के तट पर की थी।
- कण्वाश्रम से दुष्यंत और शकुन्तला का प्रेम प्रसंग जुड़ा हुआ है। यहीं पर भरत का जन्म हुआ था।
- इन्ही के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा था।
- प्राचीन काल में गढवाल में खश जाति के लोग बहुत ताकतवर थे खशों के समय बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार अधिक हुआ।
- महाभारत के अनुसार पाण्डवों का जन्म बद्रीनाथ के पास पाण्डुकेश्वर में हुआ था।
- स्कंदपुराण के अनुसार वर्तमान बाड़ाहाट (उत्तरकाशी) ही वरूणावत स्थान है जहां लाक्षागृह बनाकर दुर्योधन ने पांडवों को जलाने की कोशिश की थी।
- महाभारत के अनुसार नर व नारायण ने हजारों वर्षों तक बद्रीनाथ में तपस्या की और यहीं पर अर्जून व कृष्ण का जन्म हुआ।
- दक्ष यज्ञ के पश्चात शिव ने जागेश्वर में तपस्या की थी और यहीं कार्तिकेय का जन्म हुआ था।
- रूद्रप्रयाग का प्राचीन नाम पुनाड़ अर्थात रूद्रावर्त था।
कुमाऊं क्षेत्र से संबंधित प्राचीन तथ्य(Ancient Facts Related to Kumaun Region)
- कुमाऊं का सर्वाधिक उल्लेख स्कंदपुराण के मानसखंड में मिलता है।
- अल्मोड़ा के जाखन देवी मंदिर से यक्षों के निवास की पुष्टि होती है।
- प्राचीन काल में यहां किरात, किन्नर, गंधर्व, विधाधर, नाग, तंगव, कुलिंद, खश आदि जातियां निवास करती थी।
- विभिन्न नाग मंदिर उत्तराखंड में नागों के निवास की पुष्टि करते हैं। जिनमें पिथौरागढ का बेनीनाग मंदिर प्रसिद्ध है।
उत्तराखण्ड की प्रमुख प्राचीन प्रजातियां(Major Ancient Species of Uttarakhand)
- उत्तराखण्ड में मानव सभ्यता का उद्भव ऋग्वैदिक काल से पूर्व रहा है, परन्तु आर्यों के आगमन के पश्चात् इन प्रजातियों का यहां की सुरम्य घाटियों में प्रवाह अवश्य बड़ा था क्योकि भारतवर्ष की अन्य भूमियों की अपेक्षा यह पवित्र देव भूमि अधिक सुविधा संपन्न एवं सुरक्षित थी।
- आर्यों से पराजय के पश्चात् सैंधव निवासियों ने उत्तराखण्ड की भूमि में शरण ली
- इन पुरा प्रजातियों में प्रोटो-ऑस्ट्रेलायड तथा मंगोलायड आदि प्रजातियों से मिलती जुलती मानव प्रजातियां वर्तमान में भी उत्तराखण्ड में अपने अस्तित्व को बनाये हुए हैं।
- उत्तराखण्ड की कुछ प्रमुख पुरा प्रजातियों का संक्षिप्त उल्लेख निम्न है -
कोल प्रजाति (Coal Species)
- कोल प्रजाति को डॉ॰ शिवप्रसाद डबराल ने सर्वाधिक पुरा प्रजाति माना है।
- कोल आर्यों के विपरीत शारीरिक विशेषता वाले थे। वे देखने में कुरूप एवं भद्दे होते थे।
- पुरा साहित्यिक ग्रंथों में कोलों का वर्णन मुण्ड या शबर नाम से मिलता है।
- कोल सामान्यतः नाटे कद, कृष्ण वर्ण, चपटी नाक, मोटे होंठ, घुंघराले केशयुक्त होते थे।
- विद्वानों के अनुसार उत्तराखंड में निवास कर रही निम्न जातियां ही कोलों के वंशज हैं।
- कोलों का प्रमुख व्यवसाय कृषि था वे नदी पहाड़ियों तथा घाटियों में खेत बनाकर कृषि करते थे।
- कोल सैंधवों की भांति मृतकों को खुले में फेंकते थे। तत्पश्चात् मृतक की अस्थियों को मृतिकापात्र में एकत्र करते थे।
- भूत-प्रेत, झाड़-फूंक, जादू-टोना आदि भी कोलों का विश्वास था।
- कोल अन्य आदिम जातियों के समान प्रकृति के पुजारी थे। वे अनेक देवो देव-देवताओं के साथ-साथ वृक्षों को भी पूजते थे।
- नाग पूजा के साथ-साथ वे लिंग पूजा में भी विश्वास रखते थे।
- देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए जागर एवं पशुबलि भी उनमें प्रचलित थी।
किरात प्रजाति (Kiraat Species)
- ग्रियर्सन ने किरातों को उत्तराखंड की सबसे पुरा प्रजाति माना है।
- इस प्रजाति के अन्य नाम कीर, किन्नर, किरपुरूष भी प्रचलित थे।
- स्कंदपुराण के केदारखंड में किरातों को भिल्ल शब्द से सम्बोधित किया गया है।
- राहुल सांकृत्यायन के मतानुसार केदारखण्ड खश मंडल बनने से पूर्व किरात मंडल था।
- किरातों ने कोलों को उनके निवास स्थान से खदेड़ कर उनके क्षेत्रों में अपना आधिपत्य स्थापति कर लिया।
- किरात कोलों से प्राप्त क्षेत्र में अधिक समय तक आधिपत्य नहीं रख सके उन्हें खशों से पराजित होना पड़ा तथा दुर्गम भोटांतिक क्षेत्रों को आवास हेतु चुनना पड़ा।
- वर्तमान समय में उत्तराखण्ड में किरात प्रजाति के वंशज तराई, भावर, थल, तेजम, मुनस्यारी, कपकोट, टनकपुर, अस्कोट से काली नदी के किनारे तक के भू-क्षेत्र तथा कर्णप्रयाग से द्वाराहाट तक की घाटी में यत्र तत्र निवास कर रहे हैं। किरातों को मंगोल प्रजाति से संबंधित माना जाता है।
- मंगोल प्रजाति के समान उनमें चपटी मुखाकृति, चपटा माथा, चपटी एवं छोटी नाक, नाटे कद का शरीर आदि शारीरिक विशेषतायें पाई जाती हैं।
- किरात मूलरूपेण भ्रमणकारी प्रकृत्ति के पशुपालक थे। वे ऋतुओं के अनुसार अपना व अपने पशुओं का आवास बदलते थे।
- इनके द्वारा पाले जाने वाले पशुओं में प्रमुख भेड़ बकरियां थी। इन पशुओं से प्राप्त ऊन से अपना जीविकोपार्जन करते थे।
- वे शिकार भी करते थे और अधिकांशतया गुफाओं को आवास हेतु प्रयुक्त करते थे। किरातों में संयुक्त परिवार व्यवस्था प्रचलित थी।
- किरातों का जीवन धर्मप्रधान था। वे बहुदेबवाद के समर्थक और शिव उनके अराध्य थे।
- वे भूत-प्रेत और जादू टोना व अन्य टोटकों पर भी उनका विश्वास था।
खश प्रजाति(Khash Species)
- खशों से पूर्व उत्तराखण्ड में किरातों का आधिपत्य था परन्तु खशों ने किरातों के आधिपत्य को समाप्त कर इस भूमि पर अपना आधिपत्य जमा लिया।
- खशों से पराजित होकर किरात दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में जा बसे। जहां पूर्व से ही कोल निवास कर रहे थे।
- महाभारत, मनुस्मृति, मुद्राराक्षस, वृहतसंहिता जैसे भारतीय ग्रंथों में खशों का वर्णन मिलता है।
- महाभारत का सभा पर्व खशों के संबंध में उल्लेख करता है।
- महाभारत से ज्ञात होता है कि खश महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े।
- खशों को पर्वतों पर निवास करने वाले पाषाणयोद्धि तथा बांस से बने घरों में निवास करने वाला कहा गया है।
- खश लम्बे चौड़, हष्ट, पुष्ट शरीर युक्त लंबी नाक, दाढ़ी मूंछ युक्त गेहुएं रंग के होते हैं।
- खशों की आजीविका का साधन कृषि एवं पशुपालन था।
- इसके अतिरिक्त खश खनिज, जड़ी-बूटियों, चमड़ा-खाल, शहद तथा पशु-पक्षियों के द्वारा भी अपनी आजीविका चलाते थे।
- खश वीर योद्धा थे। सन् 1885 में ब्रिटिश युग में खशों को शूद्र वर्ग में सम्मलित किया गया था।
- खशों में अनेक सामाजिक प्रथाऐं प्रचलित थीं जो निम्न हैं -
- घर जवाई- खशों में घर जवाई रखने की प्रथा प्रचलित थी।
- जेठा - जेठों प्रथा के अनुसार पारिवार कि सम्पत्ति में सबसे बड़ा भाई अन्य भाईयों की अपेक्षा अधिक सम्पत्ति प्राप्त करता था।
- झटेला - इस प्रथानुसार यदि कोई स्त्री दूसरे व्यक्ति से विवाह कर ले तो उसके पूर्व पति से उत्पन्न पुत्र को झटेला कहा जाता था।
- टेकुवा - इस प्रथानुसार कोई विधवा वैध व अवैध रूप से किसी भी पुरूष को अपने घर में रख सकती है।
- इन प्रथाओ के अतिरिक्त खश अपनी ज्येष्ठ पुत्री को मन्दिर में दान कर देते थे।
- खश धार्मिक प्रकृति के होते थे। वे नरसिंह, नागपूजा के अतिरिक्त भूत-प्रेत तथा भटकती आत्माओं में विश्वास करते थे।
- वर्तमान में उत्तराखण्ड में रह रही कोई भी जाति अपने को खश कहलवाना पसन्द नहीं करती।
- खश, खशिया निम्नता का सूचक माना जाता है।
भोटांतिक (भोटियां ) या शौका प्रजाति (Bhotiya Species)
- भोटियां या शौकाओं की शारीरिक बनावट के आधार पर इन्हें किरात प्रजाति से संबंधित माना जाता है।
- भोटांतिक या शौका मंगोल प्रजाति के समान दाढ़ी मूछों विहिन, चपटी एवं छोटी नाक, हष्ट, पुष्ट नाटे कद एवं गेहुंए रंग के होते हैं।
- भोटिया शब्द की उत्पत्ति भाट शब्द से मानी जाती है। जिसका अर्थ है तिब्बत तथा भोटिया का अर्थ तिब्बती है।
- यद्यपि भोटांतिक स्वयं को भोटिया कहलाने के बजाय शौका, तोलछा, मारछा, कहलाना उचित समझते हैं।
- भोटियां को सामान्यताः छः वर्गों में विभाजित किया गया है। यथा शौका, जोहारी, दारमिया, तोलछा, मारछा तथा जाड़ है।
- दारमिया पिथौरागढ़ जिले में दारमा परगने के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र दारमा, व्यास, चौंदास तथा शौका धौलीगंगा व कालीगंगा घाटियों में, जोहारी गोरी नदी के घाटियों में निवास करते हैं।
- चमोली विष्णुगंगा नदी की घाटियों में मारछा, धौली घाटी में तोलछा तथा उत्तरकाशी की भागीरथी घाटी में निवास करने वाली प्रजाति को जाड़ के नाम से जाना जाता है।
- प्रत्येक शुभ - अशुभ अवसरों पर मदिरा सेवन पवित्र माना जाता है।
- चावल से निर्मित एक अन्य पेय जिसे जान कहा जाता है भी एक प्रसिद्ध पेय पदार्थ है।
- ये धार्मिक प्रकृति के होते हैं। इनमें हिन्दुओं की भांति अनेक संस्कार प्रचलित हैं जैसी भूमौ (नामकरण) पस्पावोस (चूड़ाकर्म) है।
- भोटांतिक या शौका प्रजाति एक शांति प्रिय प्रजाति है। उन्होंने युद्धों के बजाय पशुपालन एवं व्यापार को अपने व्यवसाय के रूप में चुना।
- यह एक घूमंतू प्रजाति हैं भोटांतिक अपनी ग्रीष्म तथा शीतकालीन यात्राएं सामूहिक रूप से करते हैं।
- इनके समूह को स्थानीय भाषा में कंच कहा जाता है।
- भोटांतिक में ज्या नामक पदार्थ जो कि चाय पत्ती, नमक, दूध, मक्खन या घी के मिश्रण को फेंट कर बनाया जाता अत्यधिक प्रचलित है।
- कुछ भोटांतिक वर्गों में युवा गृह प्रथा प्रचलित है। इन युवागृहों में भोटांतिक युवक युवतियां मिलते हैं तथा अपने जीवनसाथी का चयन भी करते हैं। इन युवा गृहों को रड़-बड़ नेयम भी कहा जाता है।